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वो शक्ति स्वरूपा मैत्री है

वो शक्ति स्वरूपा मैत्री है जी हाँ वो एक स्त्री है वो बंधन है वो आज़ाद भी है वो पुण्य भी है वो पाप भी है वो उन्नति है तो है अवनति भी वो कोमल है तो है कठोर भी वो तुमसे है तो तुम उससे भी वो ठहराव है तो है बहाव भी वो ऑंधी भी है तो है बहार भी वो मित्र है तो है एक दुश्मन भी वो सफ़ल है तो कहीं है असफ़ल भी वो पुकार है तो है मन की चित्कार भी वो ख़ुशी है तो है दुःखों का अंबार भी वो सुर्ख गुलाबों की खुशबू है तो है अंधेरों की बयार भी वो है जो प्राणों से प्यारी तुम्हें तो है प्राणों की घातक भी वो है सन्धि तुम्हारे रिश्तों की तो है बिखरने की वज़ह भी वो सृष्टि का आधार है तो है वो तुम्हारा उद्धार भी वो है वंशो की पोषक तो है वंशो की विनाशक भी वो है परिवार की संपोषक तो है स्वयं के लिए बलिहारी भी वो चाहे तो चाह के मिट जाए न चाहे तो है मिटा सकती भी तौलों लेकर तराजू जितना कम पड़ोगे आख़िर में तुम मानव ही एक पल में अपना बना कर जो छोड़ते हो तुम आहे भरने को उसने छोड़ा जो अग़र क़भी तो रहजाते हो जीते जी मरने को वो जानती है तुम्हारे महत्व को पर तुम कर न सकें क़दर उसकी समय ख़र्च की दुकान नहीं वो जो बिक जाये तुम्हें यूँ सस्ती स

प्रथम की संकल्पना

प्रथम बार का क्रंदन हो या प्रथम बार का हो मुस्काना प्रथम बार का वाचन हो या प्रथम बार का हो चिल्लाना प्रथम बार का कहना हो या बिन कहे ही हो कुछ सह जाना प्रथम बार का गिरना हो या गिर के पुनः प्रयास से हो चलना प्रथम बार का खिलना हो या खिल के वापस से मुरझा जाना प्रथम बार की मिली चोट हो कोई या प्रथम बार की मिली सांत्वना प्रथम बार का मोह हो कोई या प्रथम बार का हो किसी से बिछड़ जाना प्रथम बार से शुरू हो जो कुछ उसी प्रथम में जीवन का ठहर जाना प्रथम बार का हो त्याग कोई या प्रथम किया हो कोई समझौता प्रथम मिली हो सफ़लता कोई या प्रथम बार की मिली असफ़लता प्रथम से शुरू हो अंतिम तक और अंत छोर से पुनः प्रथम का रस्ता प्रथम पड़ाव हो जो भी जीवन का बन ही जाता है अनमोल रिश्ता प्रथम क़दम हो जीवन का या प्रथम क़दम हो जीवन-मरण से मोक्ष का प्रथम अनुभव हो जन्म के रिश्तों का या प्रथम हो अनुभव जन्म देने का प्रथम मिला हो शून्य क़भी और प्रथम मिला हो जो सम्पूर्ण  सखी प्रथम बार की बात है निराली जीवन के हर किसी की अनुभव यात्रा का प्रथम बार की जीत हो कोई या अनुभव में शामिल हार कोई प्रथम बार का उत्साह हो कोई या प्रथम बार हो आलोचना

चुनाव के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का घटता क़द

शैक्षिक दृष्टिकोण से चुनाव प्रत्याशी कैसा हो या चुनाव के परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का क़द कितना घटा है या बढ़ा है, इस बात के लिए मैं अगर कोई तरज़ीह रखना चाहूं, तो ज़रूर ये बात प्राचीन काल से प्रारम्भ होगी। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान में आधुनिक शिक्षा व्यवस्था की ओर उन्मुख होने पर ये स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, कि भारत जैसे लोकतंत्र पर आधारित देश में अगर राजनीति सही दिशा में हो, तो उसमें सभी शिक्षकों को अपने विद्यार्थियों में निर्भीकता, निडरता और स्पष्टवादिता के गुण समावेशित करने होंगे। यदि हम ईसा पूर्व घटनाओं का भी अवलोकन करें, तो हम ये पाते हैं कि देश को चलाने में भी राजनीति में कहीं न कहीं शिक्षकों का विशेष योगदान रहा है। उदाहरणस्वरूप, चाणक्य भी शिक्षक ही थे, जिन्होंने चंद्रगुप्त मौर्य के हाथ में शासन की बागडोर सौंपी थी। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं भारतीय संस्कृति में, जहाँ आपको राजनीति के परिप्रेक्ष्य में शिक्षकों की भूमिका का वर्णन मिल जाएगा।  वर्तमान में कृष्ण कुमार की लिखी पुस्तक ‘पोलिटिकल एजेंडा ऑफ एजुकेशन’ का भी यदि अवलोकन किया जाए, तो पाठक ये समझ सकेंगे कि शिक्षा और शिक्षक किस प्रक

व्यवहार की मार

 आखिर क्यों रखते है लोग अलग-अलग व्यवहार, किसी के लिए फूल तो किसी के लिए कांटों की बौछार ! दुआओं में कहीं शिद्दत है इतनी तो कहीं कोसने से फ़ुर्सत नहीं, कुछ मिलता नहीं किसी को फिर भी आते आदत से बाज नहीं ! कहीं देखने पर गलत तो कहीं आती नज़र अच्छाई भी नहीं, ये कैसा इंसाफ़ है तेरा क्यों सभी का मुकद्दर एक जैसा नहीं ! कोई ठहरा रहा मन मे आस लिए झील के पानी की तरह, ये सोच कर कि आज नहीं तो कल आएंगे दिन अपने भी सही ! करके सुनाना मुंह पर हमारी तो ऐसी फ़ितरत कभी न रही, आखिर क्यों लोग समझते हमको कि हम उनके काबिल ही नहीं !

गुरु का अभिप्राय

 गुरु वो है जिनकीे स्मृति भर से ही मन निर्मल हो जाये , चेहरे पर आनंदमयी मुस्कान खिल जाये ! गुरु वो है जिनके संपर्क में आते ही खुद का मैं समाप्त हो जाये, आत्मा परिशुद्ध और मन से सारा भेद मिट जाये! गुरु वो है जिनकी सीख से दूसरों को माफ़ करना आसान हो जाये, स्वयं के अस्तित्व से ही स्वयं की यूँ पहचान हो जाये ! अनभिज्ञों की अनभिज्ञता का ज्ञान कुछ ऐसे हो जाये , कि मन में किंचित भी अपने अभिमान न आने पाये! कोयले की कालिख़ से मन में हीरे सी चमक उत्पन्न हो जाये, जो स्वयं के जीवन में गुरुवर आपका मार्गदर्शन मिल जाये!

अपना शहर अपना बचपन

अपना शहर अपना बचपन जैसा भी हो बस अपना होता था हर मोड़, गली और चौराहों से एक अलग ही रिश्ता जुड़ा होता था। आख़िर बचपन में उँगली पकड़ के चलने का  सफर जो उनमें संग-२ तय होता था जहाँ मीलों कोशों दूर पैदल चलकर भाई-बहनों एवं दोस्तों संग मेलों में आना-जाना होता था। जहाँ समोसे, बूढ़ी के बाल और बतासों के  उन्हीं पुराने ठेलों से दिल अपना खिल उठता था जहाँ 5 रु की किशमिश चॉकलेट और पान पसन्द से मुँह का स्वाद जुड़ा होता था बर्फ़ के गोलों और बुढ़िया के बाल से बचपना दो चार होता था जब छतों पर एक साथ सब मिलकर फ़िल्म देखते थे ग़दर हो या बॉर्डर हो या हम आपके है कौन एक साथ ही देख के रोते थे जहाँ हर त्यौहार पूरा मोहल्ला एक साथ धूमधाम से मनाता था भाई-चारे, प्रेम-मिलाप से हर रिश्ता दिल से बंधा होता था अँधियारी रातों में नवरात्रों की, बारादेवी को जब टोली अपनी निकलती थी जय माता दी के जयकारों से सुबह हँसीन और ख़ुशनुमा हो जाती थी जहां होली में एक छोर से अंतिम छोर तक कोई न बाक़ी रहता था सबके चेहरों में गुलाल और मुँह में हर घर का स्वादिष्ट पकवान का स्वाद होता था नाच गानों, मौज-मस्ती से शामें रँगीन और हो जाती थी जब पुरुषों के सा

हिन्द देश और हिन्द की भूमि

 है हिन्द देश और हिन्द की भूमि  पावन इसका हर कण-कण है विविधता लिए है आत्मा इसकी एकता इसके हृदय बंधन में है स्वतंत्र है अब भारतवासी स्वतंत्र इनकी विचारधारा है लहू देकर किया अदा जो कर्ज़ वीरों की ऐसी पावन गौरवगाथा है बदली है ये मरुभूमि इन पचहत्तर सालों में बेरंग और फ़ीकी पड़ी दुश्मनों की यातनाएं मैदानों में सह गए हमारे वीर कितना हँसते-हँसते जंजालों में दे गए एक मिसाल हमें जो बुझ न सकें बयारों में पाश्चात्य और आधुनिकता के संगम में मिली इस पावन धरती की अब जो लौ है जली न बुझेगी न बुझने देंगी न टिकेगी न टिकने देंगी ज्वाला बन धधकेगी जब जल जाओगे खड़े-२ द्वारों में